Articles by Shishyas –
Ravi Trehan, Kirti Nagar Sthan, New Delhi.
इस भौतिक संसार में मोह माया से लिपटे लोग अपने इर्द-गिर्द स्वार्थ और अहंकार केंद्रित इच्छाओं की दीवारें खड़ी कर लेने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं और मकड़ी के जाले की तरह अपने ही बुने जाल में फंसते चले जाते हैं| फिर इन दीवारों के अंदर कुएँ के मेंढक की तरह उन्हें रहने की आदत-सी पड़ जाती है| शारीरिक सुख संबंधी रिश्तों और पदार्थों से जुड़े हुए वे लोग जिन्हें वे अपने काल्पनिक कुँओं के अंदर देखते हैं, समझते हैं कि वे उनके अपने हैं और जो उन दीवारों (कुँओं) के बाहर नज़र आते हैं वे उनके लिए अजनबी या दुश्मन हैं| विस्मय की बात तो यह है कि अधिकतर लोगों में इस प्रतिक्रिया की होड़-सी लगी हुई है, जो उनके विचार और विकास में एक सीमा निर्धारित कर देती है| ऐसी स्थिति में राग, द्वेष, ईर्ष्या और उसके फलस्वरुप अशांति का पनपना स्वाभाविक है| भूल गए हम कहाँ से आए थे और हमें किस दिशा में जाना है| इस महान भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों ने तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की कल्पना की थी| सबके अंतःकरण में और विश्व में शांति स्थापित करने की कामना की थी|
एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि इस राग, द्वेष, लालच और स्वार्थ से भरी भीड़ में तुम कब तक यूँ ही मायूस और अकेले भटकते रहोगे| कब तक शारीरिक और मानसिक दुखों की आग में अपने आप को झोंकते रहोगे| कब तक मौका देते रहोगे उन स्वार्थी लोगों को जो तुम्हारे अपना होने का दावा करते हैं और इच्छा पूर्ण न होने पर बार-बार तुम्हारा दिल तोड़ने में हिचकिचाते नहीं| कब तक अपने आत्म-सम्मान को ठेस लगवाते रहोगे? कब तक? कब तक अपनी पीड़ा के घावों की नुमाईश करते फिरोगे? अक्सर लोग तुम्हारी दर्द भरी कहानी सुनकर तुम पर ही हँस देंगे| या कोई इक्का-दुक्का घड़ी दो घड़ी कुछ सहानुभूति दिखाकर चला जाएगा| या फिर कोई विरला ही तुम्हारे घावों पर मरहम लगाने का प्रयास करेगा|
इसलिए कब तक अपने कर्मकांडों की गठरी का बोझ उठाकर जन्म-जन्म तक अंधेरे में ठोकरें खाते रहोगे| कब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से जुड़े कर्मकांडों से अपनी मैली चादर को लपेटे भटकते रहोगे| बहुत भटक लिए, बहुत लाचारी देख ली| तुम ज़रा अपनी निगाहें इंद्रिय विषयों से हटाकर अपने अंदर की ओर ले जाने की कोशिश तो करो| कब तक अपने परमपिता परमेश्वर से दूर भागते रहोगे? जबकि सिर्फ़ उसी से तुम्हारा रिश्ता सच्चा है, बाकी सब रिश्ते मिथ्या हैं| मिथ्या को तुम गले लगाते रहे और सत्य से तुम दूर भागते रहे| प्रभु ने तो अपनी कल्पना से तुम्हें अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना की उपाधि दी है| एक सुंदर और सर्वोच्च मानव शरीर दिया जो कि एक चलता फिरता और जीता जागता मंदिर है| उस मंदिर में आत्मा के रूप में स्वयं वास किया| लेकिन तुमने इस आदर्श रचना का सदुपयोग करने की अपेक्षा उसका उपभोग और दुरुपयोग करके अपने ही कर्मों के बोझ तले दबते चले गए और अपने मालिक, अपने पिता से दूर होते चले गए| उसने भले ही तुम्हें अपने कर्मों पर छोड़ दिया हो लेकिन वह कब से उम्मीद की बाहें पसारे, तुम्हें गले लगाने के लिए तुम्हारी इंतज़ार कर रहा है| पर तुम उन्हें गले लगाते रहे जिनका बिछुड़ना निश्चित था और तुम अपने पिता से दूर होते चले गए| वह तुम्हारी राह देखता रहा कि कब मेरा बच्चा थका हारा घर लौटेगा और कब प्यार से पुकार कर कहेगा, “बाबा मैं आ गया हूँ|” कितना निराश करते रहे तुम अपने परम पिता परमेश्वर को? कैसी विडंबना है यह?
इस भौतिक जगत में किसी विशेष योनि या कुल में जन्म लेना प्रारब्ध के अनुसार तुम्हारी यात्रा के पड़ाव हैं, मंज़िल नहीं| यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है, सब कुछ परिवर्तनशील है| क्या रिश्ते-नाते, संबंध, वस्तु, पदार्थ, इच्छाएँ, क्रियाएँ, परिस्थितियाँ, यहाँ तक कि अपना शरीर, सब के सब अस्थाई और परिवर्तनशील हैं| जो कल था वह आज नहीं है, जो आज है, वह कल नहीं रहेगा और कभी न रुकने वाला कालचक्र क्रमशः चलता ही जा रहा है| हमारे सगे संबंधी हमसे छूट गए| हमारे बचपन के साथी, युवावस्था के मित्र यहाँ तक कि हमारा बचपन, हमारी जवानी, हमारे न चाहते हुए भी हम से कब बिछुड़ गए, हमें इसका आभास भी नहीं हुआ, लेकिन एक सत्ता (जीव आत्मा) जो दृष्टा के रूप में इन सब परिवर्तनों का अनुभव करती रही, वह ही स्थाई है| यह प्रकृति का नियम है कि जो उत्पन्न होता है, वह पनपता है, परिवर्तित होता है और समय पाकर उसका विनाश हो जाता है| फिर ऐसी स्थिति में, इस भौतिक संसार में कोई स्थाई संबंध स्थापित करने का प्रयास मृगतृष्णा नहीं तो और क्या है|
कितने आँसू बहाए होंगे तुमने कभी कोई सांसारिक संबंध के टूटने पर या बिछुड़ने पर| कितने विरह के गीत भी गाए होंगे, दिल को छू लेने वाली, दर्द भरी आवाज़ में| सांसारिक रिश्ते तो बनते ही हैं टूट जाने के लिए, बिछुड़ जाने के लिए| सिर्फ़ एक ही रिश्ता सदैव परमानंद देने में सक्षम है और वह है परमात्मा का| अगर शौक है मिलने का तो सीख लो न उसके गम में डूबना| कर लो महसूस हिज्र की पीड़ा को| पिया से मिलने की तड़प है तो बह जाने दो इन आँखों से विरह के आँसुओं को और धो डालो अपनी मैली चादर को| लगा लो गोते कुछ समय सात्विक विचारों की गंगा और यमुना में और बह जाने दो राजसिक और तामसिक कर्मों के गंद को| अपने नियंत्रण में ले लो काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के पाँचों बागी घोड़ों को (बहुत मनमानी कर चुके ये कमबख्त अब तक) और ले चलो अपनी आत्मा के रथ को अपने पिया की ओर| ज्योत जगा लो अपने मन मंदिर में उस प्रभु के नाम की| बजने दो घंटियाँ और होने दो कीर्तन उसके नाम का| लीन हो जाओ अपने अंदर के ज्योतिर्लिंग में| फिर अपने उज्ज्वल मुख को ध्यान से देखो और पहचानो अपने निर्विकार प्रतिबिंब को| अनहद के नाद में तुम्हारी आत्मा को सुनाई देगा – ‘हरि ॐ तत्सत, हरि ॐ तत्सत’ – ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ – फिर अपने अस्तित्व का आभास भी नहीं रहेगा| प्रकाश ही प्रकाश होगा, आनंद ही आनंद होगा, शांति ही शांति होगी|
कहाँ खो गए तुम इस मिथ्या भौतिक संसार की रंगरलियों में? अपने आत्मस्वरूप को पहचानो| तुम तो सत-चित-आनंद हो| जैसे समुद्र की लहरें, समुद्र से उठती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं क्योंकि वे उसी का स्वरूप हैं| वैसे ही तुम भी उस परम तत्व का ही स्वरूप हो उसी में समा जाना तुम्हारा अंतिम ध्येय होना चाहिए| जितना सुगम इस संसार को मान्यता देना तुमने समझा था (जो कि मिथ्या है) उससे कहीं अधिक सुगम है परम तत्व को मान्यता देना क्योंकि वास्तव में तुम उसी के ही तो अंश हो|