Articles by Shishyas –
Ravi Trehan, Kirti Nagar Sthan, New Delhi.
सन् 1991 के पूर्व मध्य भाग के समय पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था, अतः शिष्य गण प्राय: प्रतिदिन उनसे मिलने जाया करते थे| उस वर्ष गुरु पूर्णिमा 26 जुलाई को थी| पूज्य गुरु जी ने प्रथम और वरिष्ठ गुरु भाई श्री आर.सी. मल्होत्रा जी को बुलाया और गुरु पूर्णिमा का महोत्सव गुड़गाँव में आयोजित करने का आदेश दिया और उनके साथ कुछ अन्य मुख्य शिष्य (जिनका उन्होंने संकेत दिया) मिलकर इस पर्व को मनाएँगे| मेरे मन में प्रतिक्रिया हुई कि यह पर्व तो गुरु और शिष्य के बीच मनाया जाता है तो इस बार तो परम पूज्य गुरु जी गुड़गाँव में होंगे नहीं, फिर हमें वहाँ जाने को क्यों कहा जा रहा है| इस पर पूज्य गुरु जी ने स्पष्ट किया कि हज़ारों लोगों की देखभाल कौन करेगा जो गुड़गाँव स्थान पर कई वर्षों से आ रहे हैं| अब से लोग मुझे तुम्हारे (मल्होत्रा पापा जी और अन्य मुख्य शिष्यों) के ही रूप में देखेंगे|
होने वाली घटनाएँ पहले से ही अपनी छाया (पूर्व संकेत) डाल देती हैं और पूज्य गुरु जी द्वारा कहे गए ऊपरी दूसरे वाक्य की भविष्यवाणी हम सबके दिल और दिमाग को सताती रही| फिर भी गुरुदेव की आज्ञा अनुसार 26 जुलाई को हम शिष्य गुड़गाँव चले गए और विधिपूर्वक उनके निर्देश का पालन करके अगले दिन आकर उनको पूरा विवरण दिया| उनकी शारीरिक स्थिति बिगड़ती जा रही थी और वो रात हमने बड़ी बेसब्री से गुज़ारी| अगले दिन (28 जुलाई) प्रातः उनकी श्वास की गति अस्थिर होने लगी| वहाँ एक डॉक्टर दंपती (जो गुरुदेव जी के ही अनुयायी थे) ने उनको देखा; लेकिन इससे पहले कि कोई उपचार किया जाता, लगभग दोपहर तीन बजे उनके शरीर का हिलना-डुलना बंद हो गया| वो अक्सर लेटे हुए ध्यान मुद्रा में चले जाते थे, उनका श्वास भी रुक जाता था और घंटों उनके शरीर की हलचल बंद हो जाती थी| हमने सोचा कि वे उस अवस्था में चले गए होंगे| हम काफ़ी समय तक इस स्थिति को देखते रहे BUT THE LIGHT HAD GONE | उनका शरीर चेतना शून्य हो गया था| वह दिव्य आत्मा पंच भौतिक शरीर को छोड़ गई थी| शाम तक दूरदर्शन (TV) से यह सूचना प्रसारित हो गई कि गुडगाँव वाले गुरूजी ब्रह्मलीन हो गए हैं| पूरे स्थान में शोक की लहर दौड़ गई और सभी शिष्यों के हृदय इस गहरे सदमे को सहन नहीं कर पा रहे थे| संपूर्ण देश तथा सात समुद्र पार विदेशों से चिंतित एवं संतप्त श्रद्धालुओं के इस दिल दहला देने वाली सूचना की पुष्टि के लिए निरंतर फोन आ रहे थे| अत्यंत निराशा और हतोत्साह कर देने वाली घटना की वजह से शोकग्रस्त अनुयायी विचलित हो रहे थे| मेरी प्रतिक्रिया थी:
वही जगह है, वही मंज़र, वही गुरु का मकाम,
रौनक है, रौशनी भी है, पर आफ़ताब नहीं|
इस जीवन में 16-17 साल का गुरु-शिष्य का घनिष्ठ संबंध गुरु शिक्षा-दीक्षा, जीवन-शैली, साधना, सेवा, भगवत प्राप्ति का सुगम मार्ग, गुरुदेव का कठिन अनुशासन, गुरुपिता का लाड़-प्यार, एक तीव्र चलचित्र की तरह मस्तिष्क से गुज़र गया| बरबस भाव उमड़ पड़ा :
खेल खिला कर चले जाना, है नहीं इश्क का दस्तूर|
किससे पूछेंगे राहे वफ़ा, मंज़िलें जाने के लिए||
अगले दिन (29 जुलाई) अंतिम यात्रा शुरु होने से पहले ही असंख्य श्रद्धालु अपने श्रद्धेय गुरुदेव जिन्हें वो अपना मसीहा मानते थे, उनके अंतिम दर्शनों के लिए लालायित एकत्रित हो गए| कुछ समय पहले ही गुरुदेव ने अपने अंतिम विश्राम का स्थान निश्चित कर रखा था| पहले से ही उन्होंने अपने एक प्रिय शिष्य को जो निर्माण का कार्य देखते थे, आदेश दे रखा था कि वो नीलकंठ धाम पर गुरु-का-चबूतरा का निर्माण कर दे जहाँ श्रद्धालु माथा टेक सकें और गुरु पूजा कर सकें| (नीलकंठ धाम बनने से पहले पूज्य गुरूजी ने इस जगह के बारे में यह शब्द कहे थे कि एक ऐसा स्थान बना जाऊँगा जहाँ एक बार माथा टेकने से लोगों के काम हो जाएँगे|)
जैसे ही फूल मालाओं से सजे पार्थिव शरीर को खुली गाड़ी में रखे जाते देखा तो सभी शिष्य समुदाय, श्रद्धालुगण तथा सेवादार अपने आप को संभाल नहीं पाए और धीरज खोकर रोने लगे| आकाश भी इस शोकाकुल की घड़ी में जार-जार रोने लगा| सारा वातावरण उदासीन था| आसमान में घनघोर बादल छाए हुए थे और पूरी यात्रा में अपने आँसू बरसाते रहे| मानो बाकी सभी लोगों की तरह नीलांबर से इंद्र देवता भी गुरुदेव को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे| अंतत: शाम को लगभग 4:00-4:15 बजे पूज्य गुरुदेव का पार्थिव शरीर निर्धारित स्थान पर रख दिया गया जहाँ उसे अग्नि को समर्पित करना था| बाद में इसी पवित्र स्थान का नाम समाधि स्थल रख दिया गया जिसे आज नीलकंठ धाम के नाम से जाना जाता है| मेरे अंतःकरण से यह शब्द उमड़ पड़े :
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है|
जिस्म जल जाने से गुरु तत्व नहीं जल जाता है||
जब आत्मा इस पार्थिव शरीर को छोड़ती है तो सभी पंच महाभूत (Five Elements – पृथ्वी-जल-वायु-तेज-आकाश) अंतत: अपने स्रोत ब्रह्मानंद में विलीन हो जाता है| अपने कर्म अथवा संस्कारों के अनुसार आत्म-तत्व या तो परमात्म-तत्व (मुक्ति-निर्वाण) में विलीन हो जाते हैं या फिर अगले जन्म की प्रतीक्षा करता है| परंतु सद्गुरु तो सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ परमात्मा के दृश्यमान प्रतिनिधि होते हैं और वे अपने निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति तथा जो भी उत्तरदायित्व उन्हें मिला होता है उसे पूर्ण करके फिर से अपने परमात्म-तत्व में जा मिलते हैं|
हकीकत में गुरुदेव हमें छोड़कर नहीं गए वे तो सिर्फ़ साकार रूप से निराकार होकर सर्वव्यापक हो गए हैं| वो आज भी हमारे पास है और पहले की तरह हम सब पर निरंतर अनुग्रह कर रहे हैं| कई बार इस बात की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है कि वो हमारे आसपास ही हैं और हमें उनकी उपस्थिति का एहसास होता है|
तुम मेरे करीब हो ये महज़ एहसास ही नहीं|
इबादत में तेरा दीदार ही खुद एक सबूत है||
इस हकीकत के कई साक्षी एवं प्रमाण हैं कि बहुत से वरिष्ठ शिष्यों को ध्यान मुद्रा में एवं सुषुप्ति अवस्था में उनके दर्शन होते हैं और उनके साथ वार्तालाप का अवसर प्राप्त होता है| यह क्षमता – i) जिज्ञासु के व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्तर पर निर्भर करती है, ii) वह सांसारिक वासनाओं से कितना ऊँचा उठ चुका है और उसका मन कितना साफ़, पवित्र और ग्रहणशील है, और iii) गुरुदेव से संपर्क करने की कितनी तीव्र इच्छा और जिज्ञासा है| उनकी कृपा से मुझे उनके दर्शन करने के, उनसे वार्तालाप करने और निर्देश प्राप्त करने के कई सुअवसर मिले हैं, पूरी जागरूकता के साथ कि अब वह शारीरिक रूप में नहीं हैं| हमारे गुरु भाई श्री आर.सी. मल्होत्रा जी को तो गुरुदेव के निरंतर दर्शन तथा उनसे दिशा निर्देश लेने के शुभ अवसर सतत मिलते रहे हैं| यहाँ पर इन अनुभवों का उल्लेख करने का उद्देश्य केवल इतना ही है कि और श्रद्धालुओं के मन में उत्साह बना रहे और इस सन्मार्ग पर चलने का निरंतर और हार्दिक प्रयास करते रहे| सद्गुरु जी से आशीर्वाद पाकर अपने जीवन को सार्थक, सफल एवं आनंदमय बनाए रखें|
पूज्य गुरु जी का निर्वाण दिवस प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा के एक दिन बाद समाधि स्थल, नीलकंठ धाम, नजफगढ़ (नई दिल्ली) में बड़े उत्साह, श्रद्धा एवं नम्रता पूर्वक मनाया जाता है| ध्यान पूर्वक महसूस किया जाए तो इस दिन नीलकंठ धाम में एक शक्तिशाली आध्यात्मिक वातावरण व्याप्त होता है और गुरुदेव की उपस्थिति का एहसास होता है|
इस पुण्य अवसर पर देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु प्रातःकाल से देर सांयकाल तक परम पूज्य गुरुदेव जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने एकत्रित होते हैं| समाधि स्थल पर विराजमान वरिष्ठ शिष्य गण उन्हें स्नेह भरे आशीर्वाद प्रदान करते हैं| प्रतिवर्ष निर्वाण दिवस पर 35,000 से 40,000 श्रद्धालुओं की संख्या एकत्रित होती है और यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती ही जाती है| प्रसाद वितरण की विस्तृत व्यवस्था की जाती है जिसे हर व्यक्ति बड़े आनंद से ग्रहण करता है और प्रेम पूर्वक घर भी ले जाता है|