मनुष्य जीवन का एक मुख्य उद्देश्य हैं कि दूसरों की निःस्वार्थ भाव से सेवा करे जिससे उनके दुःख दूर हो सकें और वे दूसरों की प्रसन्नता मे अपनी प्रसन्नता का अनुभव करें। सेवा की पूर्णता इसी में है कि एक तो सेवा समर्पित भाव से की जाए और दूसरा बदले में किसी प्रकार की भौतिक अथवा अध्यात्मिक लाभ की आशा न करे। वास्तव में जब आप सेवा निमित्त मात्र भाव से करते है जो अहंकार रहित हो, न ही उस में अभिमान का आभास हो, तो फिर आप एक ऐसे प्रेम, करूणा और अपनेपन के पवित्र और अटूट बंधन में बन्ध जाते है जिससे सेवा करने वाला और सेवा ग्रहण करने वाला दोनो ही कृतज्ञता और संतोष का अनुभव करते है। जब आप इस प्रकार की निःस्वार्थ एवं अनासक्त भाव से सेवा करना अपना स्वधर्म एवं अपना मानवीय कत्र्तव्य समझते हैं तब आप अपने आप को किसी प्रकार के भी फल के बंधन से मुक्त पाते है। इतना ही नहीं आपका यह प्रयास एक प्रकार का महायज्ञ बन जाता है जिससे मुक्ति का द्वार खुल जाता है और मनुष्य के भीतर अनंतकाल से चली आ रही आत्मा कि भूख शांत हो जाती है। आप अंदर बाहर दोनों ओर से एक अलौकिक तृप्ति, शांति और संतुष्टि का अनुभव करने लगते हैं। कर्मयोगी का ऐसा कर्म सात्विकता से ओत प्रोत होता है और ऐसे में जहां इस प्रकार के सेवारूपी सात्विक कर्म किए जाते है वहां पर सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता, सर्वशक्तिमान परमात्मा विद्यमान रहते है।
जब कर्म से कर्तापन की भावना चली जाए और कर्म फल की इच्छा भी न रहे, तथा और भी किसी प्रकार का स्वार्थ एवं आसक्ति भी न हो, तब व्यक्ति द्वारा अनायास ही जनता जर्नादन की सेवा होने लगती है। तब उसे इस बात की अनुभूति होने लगती है कि उस परमसत्ता की और गुरू की कृपा-वर्षा हो रही है। ऐसी अवस्था में सेवक केवल एक दृष्टा एवं साक्षी मात्र बन कर रह जाता है। उसमे किसी प्रकार की कर्तापन की भावना नहीं रहती है बल्कि उसके द्वारा अनायास ही सेवा होने लगती है। उसे किसी भी तरह की शारीरिक थकान या मानसिक दवाब महसूस नहीं होता। उसकी साधना का एवं सेवा का स्तर इतना ऊंचा उठ जाता है कि वह सेवा के उद्देश्य एवं कर्म के बंधन से अपने आप को मुक्त पाता है। उसके द्वारा सेवा एक स्वाभाविक कर्म बन जाती है जो साधना का रूप धारण कर लेती है।
दूसरे पहलू से जब सेवा किसी भौतिक या अध्यात्मिक लाभ एवं स्वार्थ को लेकर की जाती है, कोई आडंबर या दिखावे के साथ की जाती है, या किसी पर रहम खाकर की जाती है अथवा इस अभिमान के साथ कि वो मेरे कृपा पात्र है और मैं उनकी सहायता कर रहा हूं अथवा सेवा के बदले में मेरा नाम ऊंचा होगा तथा मेरी प्रशंसा होगी, तब समझना चाहिए कि हम सेवा की मूल भावना से दूर जा रहें है और हम अपने में अभिमान, स्वार्थ एवं आसक्ति तथा कामनाओं के बीज बो रहें है। ऐसी स्थिति में हम असंतोष, अतृप्ति, आसक्ति एवं निराशा के शिकार हो जाते है। एक दिव्य अनुभुति जैसा प्रेम, करूणा और सद्धभावना का कर्म मात्र व्यवसाय बन कर रह जाता है और हम सेवा की मूल भावना से भटक जाते है। जब सेवा के प्रयास में शारीरिक थकावट, मानसिक बोझ, कामनाओं की पूर्ति का अभाव होने से तनाव महसूस होने लगता है तब समझना चाहिए कि हमारी सेवा का स्तर गिरने लगा है और हम रजोगुण से प्रभावित हो रहे है जोकि सेवा के वास्तविक भाव पर प्रहार करता है और सेवा एक साधारण सा कार्य बनकर रह जाती है। ये एक विचारणीय विषय है।
रवि त्रेहन
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